पर्यावरण के मुद्दों का अध्ययन करने वाले विद्वान अक्सर जलवायु परिवर्तन और ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लिए किसानों को ही दोषी ठहराते हैं। जबकि किसान पूरी इमानदारी से प्राकृतिक संसाधनों और मिट्टी का सही प्रंबधन करते हैं ताकि प्राकृति का ज्यादा नुकसान ना हो। असल में किसान कोई ऐसी पद्धति अपनाता है जो टिकाऊ नहीं उसके लिए नई तकनीक और अनुसंधान है जो एक खास रिसर्च सिस्टम के जरिये आए हैं और इनमें निजी क्षेत्र की भी भूमिका है। लेकिन यह बात कोई भी आपको नहीं बताता है।

वहीं अब, हम किसानों से  यह उम्मीद की  जा रही है कि हम परंपरागत तरीके से पीढ़ी दर पीढ़ी चली रही आ रही खेती कि विधियों और तकनीक को भूल जाएं और जलवायु के अनुकूल  खेती करें, भले ही यह बदलाव हमारे लिए आर्थिक रूप से नुकसानदायक हो । यह बदलाव निश्चित रूप से जरूरी है । लेकिन यह बदलाव तब तक नहीं लाया जा सकता जब तक खेती एक सम्मानजनक व्यवसाय न बन जाय जिसमें किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य प्रदान किया जाय।

कृषि जलवायु परिवर्तन के सामाधान हिस्सा अवश्य बन सकती है लेकिन उसके लिए सरकारों को भी फार्म इको-सिस्टम से जुड़ी सेवाओं पर खर्च करना होगा। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खाद्य उत्पादों पर अधिक कर लगाना होगा। पर्यावरण औऱ आर्थिक स्थिरता के लिए सब्सिडी को पुनर्व्यवस्थित करना होगा। नीति निर्धारकों और व्याहारिकता विज्ञान की मदद से ऐसे कई कदम उठाए जा सकते हैं जिससे उपभोक्ता स्वास्थय से परिपूर्ण खाद्य पदार्थों को अपानाएं।

निम्न और मध्यम आय वाले देशो में खराब गवर्नेंस और कमजोर संस्थाएं टिकाऊ विकास के लिए सबसे बड़ी अड़चन बने हुए हैं। इन अड़चनों को पार  करने के लिए किसी बड़े आर्थिक निवेश की नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर एक अच्छे नेतृत्व की जरूरत है जो अक्सर देखने को नहीं मिलता है।

दुनिया में हर नौ में से एक इंसान भूखा सोता है और इसका कारण अपर्याप्त खाद्य आपूर्ति नहीं है बल्कि इसका कारण प्राथमिक पोषक तत्व वाले खाद्य उत्पादों को सिस्टम के जरिये महंगा और सामान्य लोगों की पहुंच से दूर कर दिया गया है।  एक तिहाई खाद्य पदार्थों की बरबादी होने के बाद भी नीति निर्धारकों का ध्यान सिर्फ उत्पादन बढ़ाने पर ही रहता है।  इसके चलते सब्सिडी का अधिकतर हिस्सा किसानों के पास पहुंचने की बजाय कुछ कंपनियों के पास पहुंच जाता है। 

कृषि उत्पादकता में बढ़ोतरी की एकतरफा सोच के चलते बड़े पैमाने पर खाली पड़ी भूमि को खेती के काम में लाया गया। इस वजह से सघन खेती की गतिविधियों से पानी, रसायन और एंटीबायोटिक्स का जरूरत से इस्तेमाल किया गया । इसके साथ ही जैविक बदलाव और आनुवंशिकीय संशोधन (जेनेटिकली मोडिफाइड) जैसे विकल्पों को भी बढ़ावा दिया गया।

1970 के बाद से इन प्रक्रियाओं  के चलते  जंगली स्तनधारी पशु, पक्षियों, उभयचरों और सर्पेंटाइल्स की आबादी में औसतन 68 फीसदी की कमी देखने को मिली है । इस तरह के खतरनाक जैव विविधता के नुकसान के साथ, जीवन का चक्र धीरे-धीरे थम रहा है।

अफसोस की बात है कि कोराना महामारी के आने के बाद से खाद्य, खुदरा, कृषि और प्रौद्योगिकी (FRAT) के क्षेत्रों में ताकत और पैसे का केंद्रीकरण तेजी से बढ़ा है। लगताहै कि आने वाले समय में खाद्य उत्पादन, वितरण और उपभोग के क्षेत्र में कुछ ताकतवर  कंपनियों ही दबदबा रहेगा और वही तय करेंगी की बाजार में क्या विकल्प उपलब्ध होंगे। फ्रैट (FRAT) के इन ताकतवर खिलाड़ियों के पास ही वह सब कुछ निर्धारण करने की ताकत होगी जो तय करेगी कि हम  क्या खाएं और किसान क्या उत्पादन करे। 

यह बात सच है कि कारपोरेट वालंटियरिज्म ने कभी खुद बेहतर काम नहीं किया है इसलिए हमें FRAT उद्योग को जवाबदेह बनाने के लिए एक मजबूत व्यवस्था स्थापित करने की जरूरत है। अगर हम हाल के अनुभवों को देखें तो अधिकांश सरकारों के एंटी ट्र्स्ट नियम और विनियमन संस्थाओं का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। इस के चलते छोटे और मध्यम आकार के उद्यमों और उत्पादकों को तेजी से बाजार बाहर किया जा रहा है।

आज की खाद्य प्रणालियों में नजर आ रही इन कमजोरियों के पीछे सालों  से चल रहा सत्ता का खेल भी है। खाद्य और कृषि व्यापार पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की संधियों के अनुमोदन के दो दशक बाद भी आज दुनिया के सबसे अधिक गरीब शुमार होने वाले वर्गों में ग्रामीण खेतिहर समुदाय की 80 फीसदी की भागीदारी हैं । यह कैसी विडंबना है कि जिन लोगों का काम दुनिया का पेट भरना है, वह खुद इस दुनिया मे सबसे लंबे समय तक भूखे रहने वाले लोगों में से हैं। अब ग्रामीण खेतिहर समुदाय पोषण के लिए बाजारों पर ज्यादा निर्भर होते जा रहे हैं। जहां वह आपूर्ति करने के व्यवधानों और महंगी कीमतों की मार की चपेट में आ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते उचित खाद्य प्रणालियों को अपनाने के लिए व्यापार संधियों को और भी ज्यादा न्यायपूर्ण बनाने की जरूरत है।

इन बुनियादी मुद्दों को हल करने के लिए किफायती तरीके भी हैं। उदाहरण के तौर पर कुछ विकल्म  देखे जा सकते हैं। यह समझते हुए कि बाजार और व्यापार महत्वपूर्ण हैं, हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि किचन गार्डन और बैकयार्ड पोल्ट्री पोषण में सुधार के लिए और ग्रामीण जीवन को बाजार के उतार-चढ़ाव के खिलाफ अधिक लचीला बनाने के लिए  सटीक और विश्वसनीय तरीके हैं। घर में ही  बगीचा लगाने से खाद्य जरूरतों की आपूर्ति हो सकती है । इसके अलावा इससे घरेलू बचत भी होगी और भोजन की बर्बादी को कम करने में भी मदद मिलेगी ।

इन प्रत्यक्ष फायदों के बावजूद घरेलू खपत के लिए घरेलू बागवानी और उत्पादन के अन्य फायदों के बारे में लोगों के बीच जानकारी की कमी है। इसकी वजह इन इन प्रथाओं पर बहुत कम शोध किया जाना है । खाद्य मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाएं ऐसे  सस्ते और किफायती उपायों में अधिक निवेश क्यों नहीं करतीं, जो बिना मुश्किल बढ़ाने वाले समझौतों के अच्छा रिटर्न दे सकते हैं।

इसका एक कारण यह है कि ज्यादातर ऐसी संस्थाए पूंजी-प्रधान व्यवसायों का समर्थन करने में व्यस्त हैं । दूसरा कारण यह है कि अधिकतर शिक्षाविद और नीति विशेषज्ञ छोटे किसानों के जीवन के अनुभवों से अनजान हैं, इसलिए वह ऐसे प्रस्तावों के प्रभाव को समझ नहीं पाते हैं। असल में इल तरह की रणनीति के लाभार्थियों के साथ धैर्य के साथ चर्चा करने के लिए कोई भी समय निकालने और विचार करने के लिए तैयार नहीं है।

 प्रतिनिधित्व का न होना और समानता की कमी ने दुनिया में एक व्यापक समस्या का रूप ले लिया है। जैसा कि अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यम और देवेश कपूर ने हाल ही में उल्लेख किया है। विकास अर्थशास्त्र (डवलपमेंट इकोनामिक्स)  पर विश्व बैंक के प्रतिष्ठित वार्षिक बैंक सम्मेलन के लिए पेपर लिखने वालों में से केवल 7 फीसदी ही विकासशील देशों से हैं। जब बहुत सारे अकादमिक शोध खाद्य मूल्यवर्धिन श्रृंखलाओं के पक्ष में हैं और जो हमेशा बड़े समूहों द्वारा नियंत्रित होते हैं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि खाद्य प्रणालियां अधिक न्यायपूर्ण नहीं बन पाई हैं। हर हफ्ते खाद्य पदीर्थों और खाद्य प्रणालियों को लेकर सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं लेकिन शायद ही पैनल या स्पीकर सूचियों में कोई किसान शामिल होता है।

 दानदाताओं और जनहितैषियों द्वारा विकासशील देशों को धन दिया जाता है लेकिन यह राष्ट्रीय खाद्य नीतियों को प्रभावित करते हैं। शायद ही कोई इन देशों में कोई इन जनहितैषियों के वास्तविक उद्देश्यों पर विचार करने को तैयार होता कि क्या इन दानदाताओं का उद्देश्य देश के छोटे किसानों के हितों से मेल खाता है ?

यह ताकतें और मौजूदा परिस्थितियां दुनिया को यह समझाने के हमारे उस काम को और मुश्किल बना देती  हैं जिसका मकसद है कि अब वक्त आ गया है कि कहानी को नए सिरे से लिखा जाए। यदि हम वास्तव में ऐसा चाहते हैं कि जो लोग हमारे भोजन का उत्पादन करते हैं, वह अधिक टिकाऊ व स्थायी कृषि पद्धतियों को अपनाएं तो सबसे पहले हमें उन्हें बेहतर जीवन स्तर, बेहतर फसल कीमतें और सम्मान देकर  सशक्त बनाना होगा।